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प्रियतम की वो बाट देखती, अब तक जाने क्यूँ बैठी है?

Meri Kavita
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प्रियतम की वो बाट देखती, अब तक जाने क्यूँ बैठी है?

श्याम सुंदरी ये रात की बगी‍या,

दिन भर सोई,

ऊंघी – अलसी सी,

दिन के ढलते खिल जाती है |

बाट जोहती, राह देखती,

आतूर प्रियतम से मिलने को,

दिल की इक छोटी फरियाद,

बेचैन है साथी को कहने को |

उज्ज्वल शीतल रात की तह में,

अपने जीवन की सच्चाई को ओढ़े,

जब हवा भी ढंड से सिकुड़ी जाती,

वो दग्ध हो रही खुद की ज्वाला में |

हवा से पूछे, रात से पूछे,

अपनी हर इक बात से पूछे –

“द्वार खुला है माली सोया

जब चाहे जो चाहे आये” |

रात बीतती पल पल हर पल…

पूरब से सूरज की परछाई

नभ पर धीरे धीरे बढती,

पक्षी के कलरव की गूँज

माली ले रहा अंगड़ाई |

प्रियतम की वो बाट देखती,

अब तक जाने क्यूँ बैठी है?

क्यूँ नहीं जाती बगिया से बाहर,

अपने प्रेमी प्रियतम से मिलने,

सोच रहा हूं जा कर पुछूं,

क्या कोई परेशानी है?

जाती क्यूँ नहीं उसे-से मिलने,

जिसकी वो दीवानी है |

सोता हुआ वो बूढ़ा माली

लाठी टेकता, लंगड़ाता सा,

अबूझ पहेली, आँखों में प्रश्न लिए

धीरे-धीरे बढ़ता है |

प्यार-भरा वो स्नेहील चुम्बन

वक्त कर रहे, एक पिता का प्यार,

शायद यह वही प्यार था,

जिसने उसको रात में रोका,

अपने साथी से मिलने को.

“ द्वार खुला था आज़ादी थी,

फिर भी वो चुपचाप थी बैठी |”

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